फीलपाँव-फाइलेरिया (फ़ाइलेरियेसिस--FILARIASIS)
नाम:- हाथी पाँव, हाथी पगा, फाइलेरिया, श्लीपद।
परिचय:- फाइलेरिया के जीवाणु के उपसर्ग से उत्पन्न यह ज्वर हैं जिसमें लसीका वाहिनियों का अवरोध और शोथ होता हैं।
रोग के कारण
- श्लीपद (फाइलेरिएसिस) उत्पन्न करने वाली कृमि (Wuchererea Bancrafli) प्रजाति की हैं जो फाइलेरिया परिवार की कई प्रकार की कृमियों में से एक हैं।
- इसका संक्रमण (Infection) 'क्यूलेक्स फेटागेंस' नामक मछर के काटने से होता हैं।
- कृमियाँ मनुष्य की लसगरन्थियों थोरेसिक डक्ट्स और लसवाहिनियों में रहती हैं।
रोग के लक्षण
- समान्यतः ठण्ड के साथ तेज बुखार।
- दौरे के समय उबकाई एवं वमन।
- ज्वर क्रमशः 3 से 5 दिन में उतर जाता हैं, कुछ दिन, सप्ताह या माह के बाद पुनः आक्रमण होता हैं।
- अत्यधिक स्वेद के साथ ज्वर उतरता हैं।
- कभी-कभी प्रतिदिन निश्चित समय पर मलेरिया के समान अथवा सेप्टिक फीवर के समान।
- ज्वर के साथ ही किसी अंग विशेष की लसीका वाहिनियाँ कड़ी, मोटी और टेढ़ी-मेढ़ी दबाने पर कड़ी रस्सी के समान ऊपरी चर्म पर लाली।
- अधिकांश प्रभावित होने वाली लसीका वाहिनियाँ 'अण्डकोष' जाँघ और भुजा की होती हैं। ग्रन्थियों में 'वक्षण' 'कक्षा' कोहनी और गले की प्रायः प्रभावित होती हैं। उदर के अंदर की प्रायः प्रभावित होती हैं। उदर के अन्दर और वक्ष की लसीका वाहिनियां और ग्रन्थियां भी।
विशेष लक्षण
- दूरस्थ में शोफ (Oedema) प्रायः पैर, अण्डकोश एवं अग्रबाहु (Fore Arm) में। पैर के पृष्ठ, टखने और टांग में घुटनों तक बहुत अधिक।
- शोफ की मात्रा बढ़ती जाती हैं यहाँ तक की पैर बहुत मोटा, हाथी पैर के समान हो जाता हैं। हाथ में इतना अधिक शोफ नहीं होता।
- पैर एवं अण्डकोश सदैव नीचे लटके होते हैं।
- शोफ के ऊपर की त्वचा मोटी और कड़ी होती हैं और अनेक बार गांठदार भी।
- अंडकोस कभी-कभी इतना बड़ा होता हैं की शिश्न (Penis) उसमें धंस सा जाय और चलने में भी कठिनाई होती हैं।
- उदर की लसीका प्रभावित होने से तीव्र स्वरूप की उदर पीड़ा होती हैं और कभी-कभी मृत्यु भी।
- वक्ष की ग्रंथियाँ एवं लसीका वाहिनियां प्रभावित होने से छाती में पीड़ा एवं खाँसी।
- खुजली, अनियमित लालिमायुक्त त्वक शोथ सारे शरीर पर बिखरा हुआ मिलता है।
रोग की पहिचान
- बार-बार ज्वर के साथ लसीका वाहिनियों के शोथ एवं अन्य लक्षणों से निदान होता हैं।
- रक्त परीक्षा में फाइलेरिया जीवाणु का मिलना।
- परिपक्व कृमि की पहिचान के लिए 'ग्लैड बायोप्सी' करना चाहिए।
- जैव अंगों (Vital Organs) में जीवाणु के उपद्रव से कभी-कभी मृत्यु।
- शोफयुक्त अंगो के आकार एवं बोझ से असुविधा।
- अन्य संक्रमणों के साथ हो जाने से पर मृत्यु सम्भव।
- शैय्या पर पूर्ण विश्राम (Complete Bed Rest)
- प्रभावित अंग को ऊँचा उठाकर रखे।
- वेनोसाइट फोर्ट 100 मि. ग्रा. की टिकिया दिन में 3 बार 3 सप्ताह तक।
- बुखार कम करने के लिए पैरासिटामोल (कालपोल/मेटासिन/क्रोसिन) अथवा फेवरेक्स प्लस दे।
- ब्रूफेन 400 या 600 मिली ग्राम की टिकिया दिन में 3 बार।
- अन्य संक्रमणों के लिए सल्फा ड्रग्स एवं पेनिसिलिन।
- आवश्यकतानुसार शल्य कर्म।
नोट:- 'फिलसिद' (Filocid) 'ग्लुकोनेट' का 2 मिली. इंजेक्शन मांस में हर तीसरे दिन/कुल 6 से 12 इंजेक्शन तक।
या 'फ्लोरोसिड' (Florocid-'ईस्ट इंडिया) का इंजेक्शन मांस में सप्ताह में 1 बार। कुल 4-8 इंजेक्शनों की आवश्यकता पड़ती हैं।
फाइलेरिया की आपातकालीन चिकित्सा इस प्रकार से भी:-
- डाईइथाइल कोर्बोमेजिन साइट्रेट 2 मिली ग्राम प्रति किलो ग्राम शरीर भार से दिन में 3 बार 3 सप्ताह तक दे। इसकी मात्रा शुरू में कम रखकर 3-4 दिनों के बाद ज्यादा दे। 4-6 सप्ताह बाद एक कोर्स और दे दें।
- एलर्जी के लक्षणों को काबू में लाने के लिए साथ में एंटीहिस्टामिनिक एवं एस्टीरॉइड्स दें।
By:- A.P.Singh (M.Sc. Agronomy)
Khajanchi Chauraha (U.P.-53)
Gorakhpur-273003
India
लेखक :- ए. पी. सिंह M.Sc. agronomy (www.agriculturebaba.com)
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